मन की बात / मोहन अम्बर
मैंने सौ-सौ स्वर गाये पर फिर भी ऐसा लगता है,
मैं मन की बात नहीं गा पाया।
अंधियारे पर जय पा जाने की कोशिशें बहुत कर डाली
दीप जलाये भोर बुलाई संध्या तक पहुँची श्रमलाली,
लेकिन एक नखत ने टेरा, मुझ तक आया नहीं उजेरा,
चाँद हजारों जन्माये पर, फिर भी ऐसा लगता है,
मैं पूनम की रात नहीं ला पाया,
मैं मन की बात नहीं गा पाया।
प्यास बुझाने को धरती की, द्वार गवाही है घर-घर का,
मीत पवन की जामिन दिलवा, कर्ज़ बढ़ाया है सागर का,
लेकिन एक बगीचा रोया, तूने मुझको नहीं भिगोया,
रूठे सावन बरसाये पर, फिर भी ऐसा लगता है,
मैं बनकर मेघ नहीं छा पाया,
मैं मन की बात नहीं गा पाया।
धार न कटती, नाव न चलती, तूफानों ने ज़ोर लगाये
इतने पर भी मेरे केवट साहस ने कुछ हाथ चलाये
लेकिन एक किनारा चीखा, तुझको मेरा द्वीप न दीखा,
मैंने अनगिन तट पाये पर, फिर भी ऐसा लगता है,
मैं नदिया पार नहीं जा पाया,
मैं मन की बात नहीं गा पाया।