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मन की सत्ता / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति

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मन की सत्ता का एकरात स्वामी केवल मनुष्य है.

मन की सत्ता के कारण ही इसका नाम मनुष्य है.

जब कि ईश्वर " मन विहीन " सत्ता है.

यदि ईश्वर पर मन होता तो .

उसके भी मन से प्रेरित होकर संस्कार अवश्य ही बनते.

वह भी हमारी तरह कर्म वर्गनाओं में फंसते .

अतः कहीं कहीं तो हम ईश्वर से भी बड़े हैं

हम जो चाहे कर सकते हैं

हम अच्छा करें या बुरा

यह बात दूसरी है.

ईश्वर जो चाहे वह कर नहीं सकता.

ईश्वर मन विहीन और हमारे कर्म निधि की नियामक सत्ता है.

ईश्वर कुछ करता नहीं है,

वह केवल होता है.

क्योकि,

अनिवार्य का निवारण

सर्वग्य के विधान में नहीं ,

मनचीता करने को मन का प्रावधान नहीं.

ध्यान की उष्मा , कर्म की ऊर्जा