भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ / सहर अंसारी
Kavita Kosh से
मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ
नहीं आई वो देवदासी क्यूँ
अब्र बरसा बरस के खुल भी गया
रह गई फिर ज़मीन प्यासी क्यूँ
इक ख़ुशी का ख़याल आते ही
छा गई ज़ेहन पर उदासी क्यूँ
ज़िंदगी बेवफ़ा अज़ल से है
फिर भी लगती है बा-वफ़ा सी क्यूँ
ऐसी फ़ितरत-शिकार-दुनिया में
इतनी इंसान-ना-शनासी क्यूँ
क्यूँ नहीं एक ज़ाहिर-ओ-बातिन
आदमी हो गए सियासी क्यूँ
ग़म-गुसारी ख़ुलूस मेहर-ओ-वफ़ा
हो गए हैं ये फूल बासी क्यूँ
इक हक़ीक़त है जब वतन की तलब
फिर मोहब्बत करें क़यासी क्यूँ
ये मुलाक़ात ये सुकूत ये शाम
इब्तिदा में ये इंतिहा सी क्यूँ
मिलने वाले बिछड़ भी सकते हैं
तेरी आँखों में ये उदासी क्यूँ