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मन के मौसम / शिवनारायण / अमरेन्द्र

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छन्द मनुख में
पिघली रहलोॅ
मन के मौसम बदली रहलोॅ।

ऐंगनोॅ के रिश्तो-नाता ठो
हाटोॅ के जों सजलोॅ साज
जे आँखी सपना देखैलकै
कहिये बिकलै, ऊ की आज?
भारी वक्तोॅ के जुद्धोॅ में
लड़कोरी ई देशोॅ केरोॅ सिहरी रहलोॅ।

उड़ै लेली ही पंख लगाय के
छै कत्तेॅ में आपाधापी
जे गिरतै की ओकरोॅ सब के
होबो करतै नाँपा-नाँपी?
नया चलन के ई दुनियाँ में
बाग प्रेम के उजाड़ी रहलोॅ

मेंहदी वाला तरहत्थी पर
शोर-शराबा-ताजमहल छै
कहौं दिखैनै तुलसीचौरा
बस सपना रोॅ शीशमहल छै
कंचन केरोॅ दिव्यलोक में
मन-हिरना छै कुहरी रहलोॅ।