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मन के रंगीन कागज पर / कविता भट्ट

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मन के रंगीन कागज पर,
जब चली लेखनी विचारों की।
उद्गम से ही पूछ रहे हम,
कौन गली हम बंजारों की।
उठ कर चले गए साथी।
अब क्या चाह बहारों की?
दो चुस्कियाँ चाय- संग पी लेते,
हमें चाह न थी उपहारों की।
पल-छिन, पल-छिन निहार रहे हम,
तुम बिन तस्वीरें दीवारों की,
संसार कहता है हमें भोगी,
पर ये चाह नहीं आवारों की।
उन्मुक्त हँसी, स्नेह-भरी बातें,
प्रतीक्षा है- सावन -फुहारों की।
अब नहीं समय दो पल का भी,
मौन कथा है बस- उद्गारों की।
परिचय मात्र ये जीवन है,
मंद मुस्कान हृदय के मारों की।