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मन के वृंदावन में सुधियों के यमुना तट / रंजना वर्मा
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मन के वृंदावन में सुधियों के यमुना तट
बिछड़े मनमीत ने आ बाँसुरी बजा दी।
पतझड़ की सूख रही पत्रहीन डालों पर
प्यार के प्रसुनों से दुनियाँ सजा दी।
बिछड़े मनमीत ने आ बाँसुरी बजा दी॥
अमराई में आकर कोकिल जब कूका तो
पपिहे ने चिंहुक एक तान चोट मारी,
सरसों के खेतों में ठिठका बसंत और
संभल कर मयूरी ने स्नेह लट सँवारी।
अनचाहे छुईमुई को छूकर सहम स्वयं
अनजाने राही ने प्यार को हवा दी।
बिछड़े मनमीत ने आ बाँसुरी बजा दी॥
गदराये यौवन के भार झुकी देह लता
काम की कमान नयन तीर कहाँ छोड़े,
पायल की छम-छम से हर उर है घायल अब
मीठी मुस्कान किस विरागी को मोड़े
डोल रही मृग कन्या कुंजों में व्याकुल हो
निर्दयी बहेलिये ने तान वह सुना दी।
बिछड़े मनमीत ने आ बाँसुरी बजा दी॥