मन को बंध कहां होते हैं / गीता शर्मा बित्थारिया
सीमाएँ तो होती हैं बस देह की
मन को बंध कहाँ होते हैं
जो फलक पे उगता चांद देख ले
वो कैसे दृष्टिबाधित
जो विहगों से संवाद साध ले
वो कैसे वाणी वंचित
जिसको सुनता हो भ्रमर गीत
वो कैसे है श्रवण सुन्न
जो मन सतरंगी इन्द्रधनुष रंग दे
उसको कैसा अवसाद
जिसने सीखी हो प्रेम की भाषा
उसका कैसा मनो विकार
जिसका अवचेतन जाग्रत हो
फिर वो कैसे बुद्धि मन्द
जो संकल्पों से हर सिद्धि कर ले
वो कैसे हुआ दिव्यांग
जो जिए जाता हो जीवन संघर्षों के संग
वो कैसे हुआ अपंग
जो इरादों की पतवार बना सिंधु तार ले
वो कैसे हो सकता है विकलांग
जो आपदा को अवसर कर ले
वो कैसे हुआ कमतर किसी से
जिसके आगे हर चुनौती हो जाए बौनी
वो कैसे हो गया असक्षम
क्या कोई कमी है ऐसी
जिसको हमारा प्यार ना भर पाएँ
थोड़ी सी बस सोच बदल लो
हर कमी की भरपाई कर दो
बिना शर्त सम्मलित करने होंगे
उनके दुख अपनी खुशियों के संग
बिना जताए अपना गुरुत्व भार
बन जाएं उनके सपनों में साझीदार
प्यार से ऐसे अंकमाल में भर लें
जो हर कमी की भरपाई कर दे
वे दान नहीं संवेदना के साथ
चाहते हैं गरिमा पूर्ण व्यवहार
अच्छे जीवन पर उनका भी हक है
दया के नहीं सम्मान के साथ
देह से नहीं हिम्मत जीती जाती हैं जंग
सीखें इनसे जीवन के चंद गुरु मंत्र
सीमाएं तो होती हैं बस देह की
मन को बंध कहां होते हैं