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मन को भाती थीं जो सावन की / देवी नांगरानी
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मन को भाती थीं जो सावन की फुहारों की तरह
अब तो यादें हैं कि चुभती हैं वो ख़ारों की तरह
दूरियाँ हममें कभी थीं जो दरारों की तरह
फैल कर दूर हुई हैं वो किनारों की तरह
लुत्फ मौसम का उन्हें आये तो आए कैसे
अब्रे-ग़म आग जो बरसाये शरारों की तरह
मुझसे मिलता है वो धरती से फलक की मानिंद
तो कभी फासले रखता है सितारों की तरह
भर दिये ज़ख़्म सभी वक्त ने यूँ तो लेकिन
दाग़ अब तक मेरे दिल में हैं मज़ारों की तरह
पढ़ चुका चाहे हज़ारों ही किताबें इंसां
है सुलूक आज भी उसका तो गंवारों की तरह
बेसहारा न कभी फिर तो मैं रहती ‘देवी’
वो सहारा मुझे देता जो सहारों की तरह