मन घबरा कर टूट गया / सुरजीत मान जलईया सिंह

 स्वप्न झरे मेरी आँखों से
मन घबरा कर टूट गया
रात रात भर चन्दा मेरे
इर्द-गिर्द ही चलता है
मावस की काली रातों में
अक्सर मुझको छलता है
उसे देखने की जिद में
हर एक सितारा छूट गया
स्वप्न झरे मेरी आँखों से
मन घबरा कर टूट गया

रोती है तन्हाई मुझ पर
चीख दफन हो जाती है
लिपट लिपट तेरी यादों से
बात कफन हो जाती है
तेरा हर इक वादा अब तो
लगता है कि झूठ गया

स्वप्न झरे मेरी आँखों से
मन घबरा कर टूट गया
तेरी मेरी एक कहानी
लिखता हूँ पढ लेता हूँ
अपने मन की पीडाओं को
कागज पर गढ लेता हूँ
मरहम जितने लगा रहा हूँ
घाव भी उतना फूट गया
स्वप्न झरे मेरी आँखों से
मन घबरा कर टूट गया...

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