मन जंगल के हुए / सोम ठाकुर
तन हुए शहर के, पर मन जंगल के हुए
शीश कटी देह लिए, हम इस कोलाहल में
घूमते रहे लिए विष-घट छलके हुए
छोड़ दी स्वयं हमने सूरज की अँगुलियाँ
आयतीत अंधकार के पीछे दौड़ कर
करके अंतिम प्रणाम धरती की गोद को
हम जिया किये केवल खाली आकाश पर
ठंडे सैलाब में बही वसंत-पीढ़ियाँ
पाँव कहीं टिके नहीं, इतने हलके हुए
लूट लिए वे मिले घबराकर ऊब ने
कड़वाहट ने मीठी घड़ियाँ सब माँग लीं
मिले मूल हस्ताक्षर भी आदिम गंध के
बुझी हुई शामें कुछ नज़रों ने टाँग लीं
हाथों में दूध का कटोरा, चंदन-छड़ी
वे महके सोन प्रहर बीते कल के हुए
कहाँ गए बड़ी बुआ वाले वे आरते
कहाँ गए हल्दी -काढ़े सतिये द्वार के
कहाँ गए थापे वे जीजी के हाथों के
कहाँ गए चिकने पत्ते बंदनवार के
टूटे वे सेतु जो रचे कभी अतीत ने
मंगल त्योहार - वार पल दो पल के हुए
तन हुए शहर के पर मन जंगल के हुए