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मन तुम किसके रूप रचे हो / कृष्ण मुरारी पहारिया
Kavita Kosh से
मन तुम किसके रूप रचे हो
किसके बल पर इस दुनिया में
साबुत अभी बचे हो
क्यों अरूप में रूप देखते
बिम्बों में तस्वीरें
नहीं कल्पना पर थोपी क्यों
काया की प्राचीरें
भीतर कैसा स्रोत खुला है
जिसका रस पीते हो
सारी पीड़ा भूल गये हो
हंसी ख़ुशी जीते हो
नहीं मांगते मान मनौबल
अपने आप लचे हो
घूम रहे निर्जन सड़कों पर
लेकिन नहीं उदासी
कैसा आज तुम्हारा
वृन्दावन, कैसा है काशी
किसकी मुरली गूँज रही है
इन गीतों छंदों में
कैसे तुमको लगा दीखने
ईश्वर इन बन्दों में
अब पहले से ठीक हो गये
मुझको बहुत जँचे हो