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मन तेरी ही ओर / रश्मि विभा त्रिपाठी

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 1
जैसे वसंत
छा जाता बगिया की
कोमल कलियों में
है वही दृश्य
तुम जबसे आए
मन की गलियों में।
2
जो जीवन के
मरु में मुरझाई
मेरे मन की डाली
उनको देखा
खिल उठ्ठी, क्या वे हैं
इस डाली के माली।
3
खिंचता जाता
किस कारण साथी
मन तेरी ही ओर
ज्यों अपलक,
एकटक चंदा की
राह तके चकोर।।
4
जब- जब भी
बिगड़े मौसम में
लिया तुम्हारा नाम
छँटने लगीं
बदलियाँ ये सारी
खिल उठा है घाम।
5
तब जाकर
पूर्ण रूप से कहीं
हाँ! स्वत्व वो पाता है
प्रणय पर
न्योछावर जिसका
सर्वस्व हो जाता है।
6
सर पे जब
शीतल छाया बन
धरा तुमने हाथ
लजाई धूप
लौटी लेके तपन
तुम जो मेरे साथ।
7
हारी- थकी मैं,
राह मेरी रोकती
निर्दयी- सी नियति
तुम चले जो
संग- संग मेरे तो
मिली मुझको गति।
8
विदा के वक़्त
होके विकल वह
गले से लिपटा ज्यों
मन पिघला
अखियों में उमड़े
सावन और भादों।
9
आँखों में आस
चाहता यह मन
तुम्हारा आलिंगन
होठों पे प्यास
धरो मधु चुम्बन
हो सम्पूर्ण मिलन।
10
कुबूल तब
तेरे संग जीने की
हुई न अर्जी कहीं
अब पड़ी है
मेरे आगे दुनिया
उठाने का जी नहीं।

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