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मन तो कब से वृन्दावन सा / शशि पाधा
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मन तो कब से वृन्दावन सा
कान्हा का कुछ पता नहीं।
जिसे रिझाने, जिसे मनाने
गाएँ झूमे चहुँ दिशा
जिसकी मूरत नैन बसे पर
अंतर्मन में रहे तृषा
बंजारन सी ढूँढूं कबसे
कहाँ छिपा, कुछ पता नहीं।
पीर –फकीर कहते मन में
योगी कहते ध्यान में
तुझमे,मुझमे सब में वो ही
बाँचा वेद पुराण में
किस पल दोनों विलग हुए
कारण का कुछ पता नहीं।
तिलक छाप लगवाई तन पे
नदिया तीरे आन खडी
ढाई आखर धरे अधर पे
नाम तेरे की जपूँ लड़ी
बीच धार अब डोले नैया
मांझी का कुछ पता नहीं।
कुछ तो कह दो, कब तक ऐसे
आँख मिचौनी खेल चले
हुई पराजित, मन भी हारी
ओट छिपे , क्यूँ और छले
मीलों संग चली पर तेरे
घर का ही कुछ पता नहीं।