भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन तो चाहे अम्बर छूना / मधु शुक्ला
Kavita Kosh से
मन तो चाहे अम्बर छूना
पाँव धँसे हैं खाई ।
दूर खड़ी हँसती है मुझपर
मेरी ही परछाई ।
विश्वासों की पर्त खुली तो,
खुलती चली गई ,
सम्बन्धों की बखिया
स्वयं उधड़ती चली गई,
चूर हुए हम स्थितियों से
करके हाथापाई ।
इच्छाओं का कंचन - मृग
किस वन में भटक गया,
बतियाता था जो मुझसे,
वह दर्पण चटक गया,
अपने ही स्वर अब कानों को
देते नहीं सुनाई ।
परिवर्तन की जाने कैसी
उल्टी हवा चली,
धुआँ -धुआँ हो गई दिशाएँ
सूझे नहीं गली,
जमी हुई हर पगडण्डी पर
दुविधाओं की काई ।