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मन पंछी बहुत अकेला है / भावना तिवारी
Kavita Kosh से
चारों ओर रोशनी,
फिर भी, भीतर बहुत अँधेरा है
ऊँचे टीले पर बैठा
मन पंछी बहुत
अकेला है!
धूल, धुआँ,
धूप के साए
कंकरीट से रिश्ते पाए
हवा विरोधी, आपाधापी
छाया में भी, तन जल जाए
क्या पाना था? क्या पाया है?
ख़ुद को कहाँ,
ढकेला है
प्लेटफ़ॉर्म पर
खड़े रह गए,
छूट गईं सब रेलगाड़ियाँ
भोलापन खा गई तरक्की
सीख गए हम कलाबाज़ियाँ
बजा सीटियाँ, समय ने जाने
खेल कौन-सा
खेला है?