भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन मार कर भी दीप लौ जलती रही / सत्य मोहन वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन मार कर भी दीप लौ जलती रही
खामोश थी पर बात कुछ चलती रही
मैं नहीं रोई, नहीं रोई कहा नादान ने
इस तरह एक पीड़ा प्राण में पलती रही.
लाख वह परदे गिराए सत्य पर
स्वर सत्य का कोमल गवाही दे रहा
की दीप लौ रो रो जली है रात भर
भीत का काजल गवाही दे रहा ...