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मन में नील गगन / संध्या सिंह
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खण्डहर जैसे जर्जर तन में
जगमग एक भवन
रेंग-रेंग चलने वालों के
मन में नील गगन
निपट अन्धेरी मावस में भी
भीतर जुगनू चमके
ढके चाँदनी काले मेघा
मगर दामिनी दमके
अन्धियारे का चीर समन्दर
तैरे एक किरन
स्वार्थ-साधना के पतझड़ में
ख़ुशबू तिल-तिल मरती
हरी पत्तियाँ सौगन्धों की
रोज़ टूट कर झरतीं
जब ढोया एकाकीपन को
ख़ुद से हुआ मिलन
कर्तव्यों के मेघ गरजते
चिड़िया-सी इच्छाएँ
दुनियादारी के जंगल में
सहमी अभिलाषाएँ
भरी दुपहरी ठूँठ वनों में
ढूँढ़ें नदी हिरन