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मन मोरा आज कबीरा सा / शशि पाधा

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मन मोरा आज कबीरा सा!
अपनी धुन में गाता फिरता
ढपली और मंजीरा सा

छूटा जग का ताना –बाना
अपना ही घर लगे बेगाना
गली –गली फकीरा सा।

न जाए अब मथुरा काशी
न ढूंढे रत्नों की राशि
कंकर-कंकर हीरा सा

बाहर भीतर एक रूप मैं
कभी मैं साधु कभी भूप मैं
रंग–रंग अबीरा सा

दूर डगर अब चला अकेला
बाँध न पाए जग का मेला
सागर तीरे धीरा सा

मन मोरा आज कबीरा सा।