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मन सुरभित कर लो / कुलवंत सिंह

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स्वर्ण उषा की लाली देखो
नव प्रभात मन सुरभित कर लो,
आशा से रंग जीवन भर लो
आभा से उर पुलकित कर लो।

क्षुब्ध उदास मन हर्षित कर लो
क्षीण हृदय स्पंदित कर लो,
भूल आघात सहज हो लो
गीत प्रकृति का बिखरा सुन लो।

बीत गया जो दुख का सागर
तिमिर हटा आलोक उजागर,
अंत हुआ वह स्वप्न निशाचर
मानव से हैवान रूपांतर।

स्वर्ण उषा की लाली देखो
नव प्रभात मन सुरभित कर लो।

तप्त हृदय का त्याग दहकना
करुण कण्ठ का त्याग बिलखना,
क्षत-अंतस का छोड़ सुबकना
सजल नयन की रोको यमुना।

शुचि चंदन सा जीवन कर लो
देव- भभूति ललाट लगा लो,
उर को प्रतिमा ईश बना लो
वाणी में मधुरता बसा लो।

कुसुमित कर जग मधु बिखरा दो
कण पराग बन सृष्टि सजा दो,
स्वर कोमल बन सुर लहरा दो
भर चेतन मन ज्वार उठा दो।

स्वर्ण उषा की लाली देखो
नव प्रभात मन सुरभित कर लो।

भुला विराग अनुराग जगा दो
मानवता का बाग खिला दो,
प्रेम सरिता निर्मल बहा दो
असुर मुण्डन काली चढ़ा दो।

नीरवता में हलचल भर दो
मिटा बेबसी खुशियां भर दो,
हर अधर अमर उल्लास भर दो
क्षमा धर्म गुण मानस भर दो।

हर क्षण हर पल गुंजित कर दो
तन मन हर जन हर्षित कर दो,
जल, नभ, भू, नर झंकृत कर दो
जप, तप, बल, प्रण अर्पित कर दो।

स्वर्ण उषा की लाली देखो
नव प्रभात मन सुरभित कर लो।