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मन / महेन्द्र भटनागर

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मोर-सा मन
फूल-सा तन
उल्लसित पुलकित
सरल
हो स्नेहमय
मदमत्त सुख की पा हिलोरें
तप्त-अन्तर-उष्णता भंगी बयारें
हो उठा चंचल
कि देखे जब गगन में
कृष्णवर्णी घोर ‘निम्बस’ मेघ !
सविता की
प्रखरतम रश्मियों को ढक लिया
मानों विजन मरुथल सहारा से
उठी है धूल
आँधी रेत की
छूने गगन की सरहदें !

उत्कर्ष !
मेरी हड्डियों का,
ख़ून का
लघु पावभर के बोझ का
कुछ फड़फड़ाती नस लिए
अंतर उठा रे
हर्ष से-उल्लास से हिल-डोल,
मानो बर्फ़ से कोई
हिमालय के शिखर पर
बद्ध शीतल झील सुंदर
फट पड़ी हो,
खिल पड़ी हो
दूध-सी !