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मन / ‘हरिऔध’

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बह गये कान्त भक्ति कालिन्दी।
कूल जिसके सदा मिले घन तन।
बज उठे लोक प्रीति बर बंशी।
कौन मन बन गया न बृन्दाबन।1।

हैं भले भाव मंजुतम मोती।
बहु बिलसता विपुल-विमल रस है।
सोहता हंस हंस जैसा है।
मानसर के समान मानस है।2।

योग जीवन समाधि अवलम्बन।
साधना सूत्र सिध्दि का साधन।
मंत्र का बीज तंत्र का सम्बल।
भक्ति-सर्वस्व मुक्ति मठ है मन।3।

हैं विविध बाजे घटों में बज रहे।
है सदा जिनसे सुधारस झर रहा।
मुग्धा अनहद नाद सुन कर है सुरति।
किन्तु मन है सुर सबों में भर रहा।4।

है कलश दिननाथ उसके सामने।
चंद्रमा है एक चाँदी का पदक।
जगमगाया सब जगत जिस ज्योति से।
उस निराली ज्योति का है मन जनक।5।

क्रीट-मंडित कान्त कुंडल से कलित।
वर वसन विलसित परम कमनीय तन।
मधुमयी मुरली मधुर वादन निरत।
दो बना बन जायगा घनश्याम मन।6।

भर गये प्रेमरंग रग रग में।
हो गये अति अप्रतीति पूरित मति।
भावना बन गयी भवानी है।
भाव मन का बना भवानीपति।7।

जिस बड़े ही भावमय मन में बसीं।
प्रेम औ प्रतीति की ही सूरतें।
संग है उसके लिए सत्संग सम।
मूरतें हैं ज्ञानमय की मूरतें।8।

है कहाँ पास उस मनुज के मन।
जो मनन कर न भ्रम निवार सका।
आप आकार वान होकर भी।
जो न साकार को सकार सका।9।

है सकल मंजु गान का वह गेय।
है अखिल वंदनीय पथ-पाथेय।
मन अननुमेय और है अनुमेय।
ध्यान का धयेय ज्ञान का है ज्ञेय।10।

तम सदैव समाधि में उसको मिला।
कालिमा मन से नहीं जिसके टली।
हो सका जिसका विमल मानस उसे।
ज्योतिमय की ज्योति मंदिर में मिली।11।

योग जप यज्ञ यातना सम है।
है सकल साधना उपाधि उसे।
साधने से सधा न मन जिसका।
आधि है व्याधि है समाधि उसे।12।

वह बरसता कभी दुसह द्रव है।
है कभी वह सरस सुधा सावी।
है उसी में भरी सकल माया।
कौन है मन समान मायावी।13।

जब पकड़ पथ लिया असुबिधा का।
कर रही है विमुग्धा क्यों सुबिधा।
जब दुविधा भाव है भरा मन में।
हो सके दूर किस तरह दुविधा।14।

बीज है वीररस सरस तरु का।
वीर बर-बोधा बंक का है धान।
वारि है वीरभाव वारिद का।
है 'बना' वीरता 'बनी' का मन।15।

वह बिकच बारिज बदन का है मधुप।
रूप सर का मीन विधु है छबि धरा।
कामिनी ही है परम कामद उसे।
काम से है कामियों का मन भरा।16।

मान मोती उसे मिले कैसे।
किस तरह नीर छीर पहचाने।
मानवों के महान भावों को।
हंस मन जो न मानसर माने।17।

है बनाता सरस नहीं उसको।
रस बरस रागरंग नाना घन।
सुख सरित नीर पी नहीं पलता।
लोकहित स्वाति जल पपीहा मन।18।

वह रहा दूकानदारी में फँसा।
जब टिका तब पाप पैंठों में टिका।
मति कनौड़ी ने कनौड़ा कर दिया।
मन रहा मणि मोल कौड़ी के बिका।19।