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ममनूँ ही रहा उस बुत-ए-काफ़िर की जफ़ा का / 'रासिख़' अज़ीमाबादी
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ममनूँ ही रहा उस बुत-ए-काफ़िर की जफ़ा का
शिकवा न किया दिल ने कभू शुक्र ख़ुदा का
आज़ा के तनासुब का न वारफ़्ता हो इतना
आँखें हैं तो रह हैरती अंदाज़ आ अदा का
हर दम है हदफ़़ नावक-ए-बेदाद का तेरी
पत्थर का कलेजा है मगर अहल-ए-वफ़ा का
ताबूत ही देखा न मिरा आँख उठा कर
क्या शर्म है कुश्ता हूँ मैं उस शर्म हो हया का
पास उस के बना दीजो मिरी आँख भी नक़्क़ाश
गर खींचे है तू नक़्श-ए-रूख़ उस हूर-लक़ा का
किस तरह मैं अब सर पे भला ख़ाक न डालूँ
देखूँ हूँ निशाँ दर पे तिरी सद कफ़-ए-पा का
किस बे-कसी की मर्ग है ‘रासिख़’ का भी मरना
नाश उस की पे कोई न हुआ महव अज़ा का