मये-गुलरंग1 का क़सूर नहीं
तेरे दिल में ही कुछ सरूर नहीं
लब सुलगते हैं जिस्म जलता है
यूं ही बाहों में रहिये दूर नहीं
जिक्रे–इन्सां पे चौंकने वालो
मेरे पहलू में कोर्इ हूर नहीं
चौक उठता हूं चीख़ पर अपनी
मुझ को जीने का कुछ शउर नहीं
गूंज पार्इ न लज़्ज़तों की सदा
ग़म का सन्नाटा बेक़सूर नहीं
मेरी जानिब भी इक निगाहे-करम2
कुछ कमी तो तेरे हज़ूर नहीं
तेरी काफ़िर अदा भी कातिल है
सर्द मौसम का ही क़सूर नहीं
बाख़ुदा आज भी हैं आप ‘कंवल’
आंख से दूर दिल से दूर नहीं
1. पुष्परंग की मदिरा 2. कृपा की दृष्टि।