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मय पीते हैं दिन-रात पिया जाए है कुछ और / कांतिमोहन 'सोज़'

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मय पीते हैं दिन-रात पिया जाए है कुछ और ।
सुनते हैं कि ऐसे में किया जाए है कुछ और ।।

गर ख़ौफ़ नहीं है तो कोई ख़ब्त है यारो
हम कहते हैं कुछ और कहा जाए है कुछ और ।

असबाब<ref>सामान</ref> मेरा देख के हँसने लगे अहबाब
क्या वक़्ते-सफ़र साथ लिया जाए है कुछ और ।

कैसे कहें अब लुत्फ़<ref>कृपा</ref> से बाज़ आइए साहेब
हर बार का एहसान हिला जाए है कुछ और ।

वाज़े ही नहीं उसपे अभी हर्फ़े-मुकर्रर<ref>ऐसा अक्षर जो ग़लती से दो बार लिखा गया हो</ref>
कुछ और मिटाता है मिटा जाए है कुछ और ।

कुछ दूर से देखो तो ज़मीं स्वर्ग से बढ़कर
फिर पास से देखो तो नज़र आए है कुछ और ।।

शब्दार्थ
<references/>