मरघट / विमल राजस्थानी
घोर अँधेरी रात, भयानक सन्नाटा है
निपट अकेली वासव, दुख किसने बाँटा है
ओह ! विधाता-सी तेरी लीला बहुत विकट है
पहले विद्युत-सी कौंधी, अब हुई प्रकट है
मसृण, गुलगुली सेज महल, रथ, बाँके पहरी
झाड़ मृदगी,दीप-वृक्ष की छटा सुनहरी
रूप-शिखा के शलभो के टिड्डी-से वे दल
वह असीम एंश्वर्य, सुरो, असुरों का सम्बल
सब विलुप्त हो गये पलक मारते कहाँ री !
गिद्ध, श्रृगाालों का प्रघोष सुन रही यहाँ री !!
अट्टाहास करते आ जाते प्रेत अचानक
क्षतन्विक्षत शव को करने के दृश्य भयानक
कहीं गड़े शिशु, कहीं पुरुष, नारियाँ धधकतीं
बुझी-बुझी-सी चिताएँ, कहीं भभकतीं
जल न सके मांसल नितंब उस नारी-शव के
ये नागिन-सी लटें-राख की छोटी चुटकी
खंड-खंड मस्तक,ज्यों फूटे उतरी मटकी
हा ! कैसे यह झेल-झेल मैं सहन कर रही
अरी निगोड़ी देह ! प्राण क्यांे वहन कर रही
ओ यमुने ! अपने आँचल में मुझे छिपा ले
फटे धरा,सीता की नाई, मुझे समा ले
नहीं चाहती मैं यह जीवन, नहीं चाहती
नहीं चाहती मैं ये पल-छिन,नहीं चाहती
था क्या मेरा दोष, पाप क्या मैने पाला ?
छीना क्यांे विधना ने जीवन का उजियारा ?
छिन्न-भिन्न सुख-शांति चाह ने कर दी मन की
अब विद्रूपित दशा बना कर रख दी तन की
छीन लिया सर्वस्व, शेष मरणोन्मुख जीवन
साथ रह गये स्यार-उलूको के भीषण स्वन
चारों ओर अधजले शव दुर्गन्ध भरे हैं
यह गिद्धो की झपट कि शव भी डरे-डरे है
गीली ठंढ़ी रेत, सुबकती यमुना का तट
बैठी है वासव बिसूरती अपने से हट
शब्द असंख्य व्यक्त कर देते बीते सुख को
किन्तु, नहीं हैं शब्द व्यक्त कर दें जो दुख को
चाँद झरे चूरा हो, सूरज खंड-खड हो
धरती धुरी छोड़ दे, तांडव-ध्वनि प्रचंड हो
प्रलय-काल हो प्रकट, सिन्धु सब तट विहीन हो
चट भूगोल-खगोल बुलबुले-सा पिलीन हो
शेष त्रिदेव देख लें तो गूँगे हो जायें
वासव की असीम पीड़ा को कौन बताये