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मरजानी लड़कियाँ / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
न जाने कहाँ से
ले आती हैं अपने हिस्से की
हवा और धूप
और पलक झपकते ही
घर-आँगन में महक उठती हैं हरे धनिया सी
ये मरजानी लड़कियाँ
गोल-मटोल नन्ही कलाइयों में
झमक कर पहन लेती हैं चूडियाँ माँ की
और खनक उठती हैं चूडियों सी
ये मरजानी लड़कियाँ
न संवारों न दुलारो तो भी
न जाने कब और कैसे
ओक में भर लेती हैं अपने हिस्से की चांदनी
ये मरजानी लड़कियाँ
नींद में भी चल देती हैं
संवारने बिखरा हुआ घर
कजरी सी गूंज उठती हैं बियाबानों में
ये मरजानी लड़कियाँ
चटके दर्पण में निहारती हैं
अपनी आँखों की चमक
और खुद पर ही हो उठती हैं निसार
ये मरजानी लडकियाँ
कहने को तो
कपास सी उड़ी फिरती हैं हवाओं संग
पर रो उठती हैं अक्सर मुस्कुराते हुए
ये मरजानी लड़कियाँ