मरजीवा / सुभाष राय
उस पर इलज़ाम थे
कि वह झूठ नहीं बोलता
कि वह अक्सर ख़ामोश रहता है
उसे देखने को लालायित थी भीड़
बहुत दिनों से कोई दिखा नहीं था
इस तरह सच पर अडिग
वह बिल्कुल दूसरे आदमियों जैसा ही था
हाथ, कान, आँख सब औरों की ही तरह
भीड़ में घबराहट थी
कुछ उसे पागल ठहरा रहे थे..
आत्महत्या पर उतारू है
बेवकूफ़, मारा जाएगा
कुछ को याद आ रही थीं
ऐसे मरजीवों की कहानियाँ..
इसी तरह एक और पागल
निकल आया था सड़क पर
सच की सलीब पर ख़ुद को टाँगे
हिम्मत से आगे बढ़ा था
पर उसकी हिम्मत से बड़ा
निकला था एक खँजर
पलक झपकते लपलपाता हुआ
उसके सीने में उतर गया
वह सच बोलते-बोलते रह गया
कुछ युवक भी थे भीड़ में से उचकते हुए
उस आदमी तक पहुँचने
उसे छू लेने को व्याकुल
उन्होंने पढ़ा था, झूठ हमेशा हारता है
उन्हें अभी तय करना था, सच की राह चुनें या नहीं
जैसे ही वह बोलने को तैयार हुआ
चारो ओर सन्नाटा छा गया
वह बोलता तो भूख और मौत की नींव पर
खड़ी की गईं इमारतें भरभराकर ढह जातीं
निरपराधों के ख़ून से सींचकर उगाया गया
ऐश्वर्य द्वीप डूबने लगता
वह बोलता तो आदमी के चेहरे लगाए
भेड़िये पहचान लिए जाते
पर हर बार की तरह इस बार भी वही हुआ
उसके इशारे से पहले ही
एक सनसनाती हुई गोली
उसके शब्दों को वेधती हुई निकल गई
वह पहाड़ की तरह गिरा सच को सम्हाले
वह मर गया पर सच ज़िन्दा था
कल फिर कोई निकलेगा
आदमी होने का एलान करते हुए
सच उजागर होने तक
बार-बार मरकर भी
उठ खड़ा होगा मरजीवा