भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मरना चाहती हूं / अर्चना अर्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर तक परवाज़ भरना चाहती हूं
इक दफा हद से गुज़रना चाहती हूं

चाहती हूं मौत से नज़रें मिलाना
वो समझता है कि मरना चाहती हूं

बाग की ख्वाहिश न भंवरों की तमन्ना
खुशबुओं जैसी बिखरना चाहती हूं

मुश्किलों की आंच से डरती नहीं मैं
आग में तप कर निखरना चाहती हूं
 
हैं बड़े तूफान आंखों में तुम्हारी
इस समंदर में उतरना चाहती हूं

जिंदगी को भरते भरते गुल्लकों में
थक चुकी अब खर्च करना चाहती हूं