मरा हुआ आदमी / बृजेश नीरज
इस तन्त्र की सारी मक्कारियाँ
समझता है आदमी
आदमी देख और समझ रहा है
जिस तरह होती है सौदेबाज़ी
भूख और रोटी की
जैसे रचे जाते हैं
धर्म और जाति के प्रपंच
गढ़े जाते हैं
शब्दों के फ़रेब
लेकिन व्यवस्था के सारे छल-प्रपंचों के बीच
रोटी की जद्दोजहद में
आदमी को मौक़ा ही नहीं मिलता
कुछ सोचने और बोलने का
और इसी रस्साकसी में
एक दिन मर जाता है आदमी
साहेब!
असल में आदमी मरता नहीं है
मार दिया जाता है
वादों और नारों के बोझ तले
लोकतान्त्रिक शान्तिकाल में
यह एक साज़िश है
तन्त्र की अपने लोक के ख़िलाफ़
उसे ख़ामोश रखने के लिए
कब कौन आदमी ज़िन्दा रह पाया है
किसी युद्धग्रस्त शान्त देश में
जहाँ रोज़ गढ़े जाते हैं
हथियारों की तरह नारे
आदमी के लिए
आदमी के विरुद्ध
लेकिन हर मरे हुए आदमी के भीतर
सुलग रही है एक चिता
जो धीरे-धीरे आँच पकड़ेगी
धीरे-धीरे हवा तेज़ हो रही है