मरा हुआ ईश्वर / उपासना झा
सती की निर्जीव गात से कट-कट कर
गिरते अंग हूँ मैं
अक्षय-वैभवा लक्ष्मी की संतानहीनता का
दारुण दुख हूँ मैं
द्रौपदी के खुले केशों
और अविरल अश्रुधार के बीच
उसकी आत्मा से उठती पुकार मैं ही हूँ
मैं हूँ उसकी नग्न छाती भी
मैं हूँ गर्भिणी सीता के मुख पर पसरा विषाद
उसके नेत्रों में ठहरा हुआ प्रश्न हूँ मैं
मैं ही हूँ कैकेयी का हठ भी
वय-हीन संधि मैं ही हूँ
मैं हूँ उर्वशी का वचन-भंग
उसका स्वर्ग से निर्वासन भी मैं ही हूँ
मैं हूँ शापग्रस्त शकुंतला कि भ्रांति
उसके चरित्र पर उठता हुआ हर प्रश्न हूँ मैं
मैं हूँ मल्लिका कि प्रतीक्षा
प्रियंगुमंजरी का ताप मैं हूँ
मैं हूँ माधवी का बंटा हुआ यौवन
मैं हूँ जंगल में विश्वास की गहरी नींद सोती
दमयंती का खंडित चीर
मैं हूँ यशोधरा का परित्यक्त जीवन
तिष्यरक्षिता कि वासना मैं ही हूँ
निविड़ रात्रि में
सड़कों, गलियों, नालियों के पास
गहन अंधकार में
फेंके गए निःस्पंद शरीरों पर
उभरे असंख्य घाव हूँ मैं
मैं ही हूँ उन अनावृत देह से बहता रक्त
सामर्थ्य से अधिक पीड़ा वहन करती
चेतना कि बारीक लकीर समेटे
पलकों की धीमी फरफराहट
और कंठ में घोंट दी गयी आवाज़
मैं ही हूँ
मैं हूँ वह झुका हुआ सिर
लज्जा से हज़ार मृत्यु भोगता
अपनी ग्लानि में गलता हुआ,
उनकी आत्माएँ नोचकर
खाने वाला पिशाच मैं ही हूँ
मैं हूँ गर्भ की चुप चीखें
जांघों पर लिथड़ा रक्त मैं ही हूँ
चूल्हे में जलती,
अदहन में खदकती
हर चौक, चौराहे पर उबलती
तेज़ाब से जलती
पँखे से लटकती
उन सभी देहों के संग मैं भी हूँ
मैं हूँ तुम्हारा ईश्वर, टुकड़ो में बंटा हुआ
मैं हूँ तुम्हारा ईश्वर मरा हुआ