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मरीज-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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मरीज़-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना
"सिरहाने से किसी का उठ के वो पिछले पहर जाना "

किसी को हम-नफ़स समझा, किसी को चारागर जाना
मगर दुनिया को हमने कुछ नहीं जाना, अगर जाना

मक़ाम-ए-ज़ीस्त को हम ने भला कब मोतबर जाना?
मिला जो लम्हा-ए-फ़ुर्सत उसे भी मुख़्तसर जाना

इलाही! हम ग़रीबों की ही क्यों यह आज़माईश है?
दवा का बे-असर रहना, दुआ का बे-असर जाना

तबस्सुम ज़ेर-ए-लब तेरा,दलील-ए-सुब्ह-ए-जान-ओ-दिल
तेरा नज़रें चुराना, नब्ज़-ए-हस्ती का ठहर जाना

हक़ीक़त है तो बस इतनी सी है हंगाम-ए-हस्ती की
"यहाँ पर बे-ख़बर रहना, यहाँ से बे-ख़बर जाना "

सलाम ऐसी मुहब्बत को, भला ये भी मुहब्बत है!
किसी की याद में जीना, किसी के ग़म में मर जाना

रह-ए-उल्फ़त में हम से और क्या उम्मीद रखते हो?
ये क्या कम है कि अपनी ज़ात को गर्द-ए-सफ़र जाना?

तू ख़ुद को लाख समझे बा-कमाल-ओ-बा हुनर "सरवर"
तुझे लेकिन ज़माने ने हमेशा बे-हुनर जाना!