भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मरी नहीं होंगी इच्छाएँ / नरेन्द्र पुण्डरीक
Kavita Kosh से
इस जीवन में तो उम्मीद नहीं है मुझे
अगले जन्म जैसा कुछ
होता है में नहीं है विश्वास,
आशा नही है कि
नहा पाऊँगा नदी में उसी तरह
जैसे नहाता था साथी
लड़के-लड़कियों के बीच,
लड़के हो गए होंगे
मेरी ही तरह अधबूढ़े
लेकिन मरी नहीं होगी
मेरी ही तरह उनकी इच्छाएँ,
लड़कियाँ तो बुढ़ा गई होंगी इतनी कि
इच्छा ही नही जन्म ले रही होगी
एकाध ही होंगी
जिन्हें मिला होगा अच्छा घर-वर
उनके मन-मुकुर में
कहीं ज़रूर बचा हूँगा मैं
लेकिन सोंचता हूँ कि
क्या पलट कर देखनें का
साहस भी बचा होगा उनमें।