भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मरुथल में बदली / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घिर आयी थी घटा नहीं पर बरसी चली गयी।
आँखे तरसी थीं
भरी भी नहीं छली गयीं।
दमकी थी दामिनी परेवे

चौंक फड़फड़ाये थे गोखों में
अब फिर चमक रही है रेत।
कोई नहीं कि पन्थ निहारे।
सूना है चौबारा।