मरुथल में रात / अज्ञेय
रातों-रात निकल जाते रहे हैं
वे नीरव और निश्छाय
(बीतती रही हैं शतियाँ)
और भोर होते न होते
धो जाती रही हैं हवाएँ
उन के पैरों की छाप।
कौन थे वे? कहाँ जो रहे थे? क्या लिये हुए?
निश्चय की हमारे ये सवाल
उन के नहीं थे-
न हमारे ये बिम्ब : उन के मन के दिक् चक्रवाल
(और उन के हवाल)
दूसरे ही रहे।
साँझ होते ही दौड़ते हैं रेती पर
पगलाये से पिपियाते हुए पंछी
उन गुज़रने वालों के काफ़िलों से पहले।
दिन में वह नहीं दीखेंगे, पर उन के
पिपियाते सुरों की गूँज सुनाई पड़ती रहेगी
रोज़ दर रोज़ दर रोज़ भरती हुई सोज़
जोगियों के अलगोज़ों में गुँजाती हुई
शतियों के पार पागल प्रेमियों की भूली-अनभूली कहानियाँ :
रेत में मिटी नहीं केवल छायाएँ-मिटी हैं
कितनी राजकुमारियाँ, गडेरिनें, गोपियाँ,
कबीलाई रानियाँ!
फिर बहकी हवा : बालू की झील में उठी लहर।
फिर मिट गयी छाया कोई
ऊँट की, गड्डर की, गडेरिन की, मालिन की, रानी की?
टूटा नीरव एक तारा
टूटी कड़ी मेरी अन्तहीन कहानी की...
फिर पिपियाया वह अकुलाया परेवा
फिर निकल चले वे छाया न छोड़ते
रातों-रात...