मरुस्थल में हरेपन की झलक है
मेरे भीतर में जंगल अब तलक है
पटक कर पाँव कब का जा चुका वह
अभी तक दिल की धरती में दलक है
चलेगी किस तरह लफ़्ज़ों की कश्ती
किसी सूखी नदी जैसा हलक़ है
चिता को देख कर रोता ना समझो
धुएँ से हो गई गीली पलक है
जो है हलचल मचाने पर उतारू
किसी अधजल सुराही की छलक है