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मरुस्थल : एक मृगतृष्णा जीवन / चन्द्र गुरुङ

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चेहरे के कैनवास पर
एक भी लकीर चमकीली मुस्कुराहट की खिँची नहीं है
गालोँ में ख़ुशी की तितली उड़ी नहीं है

सारी सुन्दरता मुरझाए बगीचे के जैसा
उजाड़ है मरुस्थल

चारोँ ओर सूखे हुए पत्ते हैं
हवा के शुष्क हाथ यौवन सहलाने आते हैँ
आँखोँ में मृत उमंगोँ को संभाले
उठ रहा है अकेलेपन का टीला

दिनभर नयन लड़ाती है अल्हड़ धूप
छेड़ती रहती है हवा अपने यौवन से
किसी बटोही को बहलाने का मन है
हाव–भाव से किसी को दीवाना बनाने की चाह है
प्रेमिल आलिंगन के इन्तजार में
जी रही दुल्हन के सपनों जैसा है मरुस्थल

छाती पर खजूर के हरे पेड़ सजे हैं
कानोँ में लटका है जवान नागफनी
यह मरुस्थल शामिल है इच्छाओं के लम्बे कारवां में
एक मृगतृष्णा जीवन