मरु-यात्रा आंखों में / योगेन्द्र दत्त शर्मा
सूनी दोपहरी है
हांफती टिटहरी है
सूरज के अग्निदंश चुभते हैं पांखों में!
कंठ प्यास से चटका
मौसम यह संकट का
तैर रही मरु-यात्रा अकुलाई आंखों में!
बादल रीते-रीते
शीतल वे पल बीते
मोर, सांप, मृग, चीते
एक साथ हैं जीते
प्यास बहुत गहरी है
यातना इकहरी है
झांक रही यहां-वहां महुओं में, दाखों में!
नीर गया तालों से
जूझकर सवालों से
झुलसा दिन, छांह बिना शहतूनी शाखों में!
चीख रहे सन्नाटे
मारे किसने चांटे
जंगल, बस्ती, हाटे
लूओं के खर्राटे
चुप्पी-सी ठहरी है
हर धड़कन बहरी है
चिनगारी सुलगी है फिर उदास राखों में!
रेतीली एक नदी
किसने लाकर घर दी
धूसर दिन के आगे, जलते बैसाखों में!
छांहों वाले पल-छिन
नहीं रहे अब मुमकिन
सह पाना हुआ कठिन
धूलिया, कसैले दिन
ऊंघती मसहरी है
कांपती गिलहरी है
उड़ी चील, नन्हा खरगोश दबा कांखों में!
पिंजरे वाली मुनिया
कहती-सिमटी दुनिया
अपनी तो हर उड़ान बंद है सलाखों में!
-1 मई, 1993