भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मर्माहत है / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मर्माहत है
       प्रकृति
     बिगड़ी राजनीति से ।

उखड़े पड़े हैं
परार्थी पेड़,
सूरज — 
       चान्द — 
              सितारों का
मुँह जोहते।

इंसान
अब फिर रोपते हैं
अपने और
        दूसरों को
एक समान ।

इंसान
अब फिर खोलते हैं — 
विसर्जन की जगह — 
सर्जन के — 
            नयन
अपने और दूसरों के ।



12 सितम्बर 1978
(बान्दा में आई भयंकर बाढ़ से प्रेरित)