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मर्म-व्यथा - 1 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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बिखर रहा है चंद हमारा।
सकल-लोक-मानस-अवलंबन, जगतीतल-लोचन का तारा;
राका-रजनि-अंक-अनुरंजन है आवरित निविड़ घन द्वारा।
है हो रहा अकांत कांत तन बहु नीरस सरसित रस-धारा;
अधाम सिंहिकानंदन से है अवनीतल-अभिनंदन हारा।
सुधा-धाम है सुधा-विहीन-सा, मुद-विहीन है कुमुद-सहारा;
पानिप-हीन आज है होता प्रतिपल पाथ-नाथ-सुत प्यारा।
तदपि गगनतल है न विकंपित, अतुलित व्यथित न कोई तारा;
अहह रसातल है सिधारता भव-वल्लभ, दिवलोक-दुलारा!