मशालें जो हम-तुम जलाए हुए हैं,
अँधेरे बहुत तिलमिलाए हुए हैं।
उन्हें खल रही है ये हिम्मत हमारी,
कि क्यों लोग परचम उठाए हुए हैं।
दिलों में कोई आग दहकी हुई है,
पलाशों के मुँह तमतमाए हुए हैं।
हमारे पसीने की आभा है इनमें,
जो गुल लान में मुस्कराए हुए हैं।
ये बेख़्वाब आँखें, ये बेजान चेहरे,
उन्हीं ज़ालिमों के सताए हुए हैं।
अजब है जो निकले थे ज़ुल्मत मिटाने,
वे दरबार में सर झुकाए हुए हैं।