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मशालें / मनमोहन

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मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर

मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए

मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं

वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के...जैसे
हमारी भोर के होंगे

लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा...बरसता हुआ...

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)