मशीनों के दिल भी धड़कने लगे हैं / प्रदीप कुमार
ये इश्क भी कम्ब़ख्त क्या चीज़ है
यहाँ कौन ऐसा जो नाचीज़ है
ये ठहरा हुआ मद्धम-सा सफ़र है
कुछ तेरे कुछ मेरे दिलो का असर है
कि जज्बात नौजवानी के फड़कने लगे हैं
ये सीने नहीं कमजोर अब तलक
के मशीनों के दिल भी धड़कने लगे हैं।
दिल में दबी आग जलने लगी है
ख्व़ाहिशें करवटें बदलनें लगी हैं
मैनें देखा है इन दिनों करीब से
मशीनों को यारों
ये नम आखों से मुक्तक पढ़ने लगी हैं
कुछ तो हुनर है, अदा है, वफा है
के चाहत में तेरे तड़पने लगे है
के मशीनों के दिल भी धड़कने लगे हैं।
बड़े आदर्श कहाँ अब सितमग़र
कुंदन-सी काया में नारायण-सा वर
सुमन-स्नेह से सजी पूजा कि थाली
हर के विनोद में झूमें डाली-डाली
नूतन-नवीन से भीगे ये शब्द
कहीं अब शफ़क से चमकने लगे हैं
के मशीनो के दिल भी धड़कने लगे हैं।
कहाँ नीरज तुम भी मकरंद हो गए हो
दिशा है मुदित-सी भ्रमर हो गए हो
काव्य ज्योति हृदय में उपवन बन गई
वो उपमा ललित-सी भुवन बन गई
वो सांसे सुनकर मशीनों की देखो
कहीं ईश फिर से गरजने लगे हैं
के मशीनों के दिल भी धड़कने लगे हैं।