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मशीनों से पहले का आदमी / महेश कुमार केशरी

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मशीनी युग से पहले का
आदमी खटता था,
अपने खेतों
में हल-बैलों के साथ..
आलस से था वो कोसों दूर... !

वो, पूजता था, दिशाएँ,
और प्रकृति के सभी
स्वरुपों को

वो, नदियों को पूजता
था, ..अपना इष्ट मानकर

वृक्षों की करता
था ..सेवा...

पहाड़ उसके लिए
होते थें..... देवता..

रचना, उसके लिए,
कभी..एक, शौक था..
कला उसके जीवन
का अभिन्न हिस्सा हुआ
करती थी..

वो, उकेरता था, पत्थरों
पर, आकृतियाँ, रंँगता था
मिट्टी के बर्तनों को ...
बनाता था, फूस की झोपड़ियाँ
बाँस से बुनता, टोकरियाँ,
पत्तों से बनाता था दोने...

खाता, था, खाना
जमीन पर बैठकर,
आलती - पालथी
मारकर
मिट्टी के बर्तनों में
जमीन से जुड़कर..

जमीन से जुड़कर
वो निहायत जमीनी
हुआ करता था..

सच, ये भी है कि, प्रकृति ने
हल- बैल, बाँस-पत्ते,
हवा, रौशनी की कभी कोई
कीमत नहीं माँगी
रंग, पहाड़, पत्थर पानी सब
मुफ्त में दिये ...

ये सच है कि, मशीन ने
आदमी के काम को
बहुत आसान बनाना दिया
और धीरे- धीरे आदमी
 मशीन का अभ्यसत
होता गया...
 
आदमी की साजिश..
आदमी और उसके श्रम के
विस्थापन
को लेकर की गई थी.. !

मशीनों के आने के बाद
उसके हिस्से की हवा
खराब करने लगे मशीन..!

लेकिन, धीरे - धीरे
साजिश करने वाले आदमी
को भी ये नहीं पता चला
कि वो कब इतना ज्यादा
निर्भर रहना लगा मशीनों पे कि
उसका पूरा वजूद ही
निगल गये हैं मशीन...!