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मसअले भी मेरे हम-राह चले आते हैं / मुज़फ़्फ़र 'रज़्मी'

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मसअले भी मेरे हम-राह चले आते हैं
हौसले भी मेरे हम-राह चले आते हैं

कुछ न कुछ बात मेरे अज़्म-ए-सफ़र में है ज़रूर
क़ाफ़िले भी मेरे हम-राह चले आते हैं

जब भी ऐ दोस्त तेरी सम्त बढ़ाता हूँ क़दम
फ़ासले भी मेरे हम-राह चले आते हैं

ग़म मेरे साथ निकलते हैं सवेरे घर से
दिन ढले भी मेरे हम-राह चले आते हैं

पा-बरहना जो गुज़रता हूँ तेरे कूचे से
आबले भी मेरे हम-राह चले आते हैं

मेरे माहौल में हर सम्त बुरे लोग नहीं
कुछ भले भी मेरे हम-राह चले आते हैं

जब भी करता है क़बीला मेरा हिजरत ‘रज़्मी’
ज़लज़ले भी मेरे हम-राह चले आते हैं