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मसल कर फेंक दूँ आँखें तो कुछ तनवीर हो पैदा / शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी

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मसल कर फेंक दूँ आँखें तो कुछ तनवीर हो पैदा
जो दिल का ख़ून कर डालूँ तो फिर तासीर हो पैदा

अगर दरिया का मुँह देखूँ तो क़ैद-ए-नक़्श-ए-हैरत हूँ
जो सहरा घेर ले तो हल्क़ा-ए-ज़ंजीर हो पैदा

सरासर सिलसिला पत्थर का चश्‍म-ए-नम के घर में है
कोई अब ख़्वाब देखे भी तो क्यूँ ताबीर हो पैदा

मैं इन ख़ाली मनाज़िर की लकीरों में न उलझूँ तो
ख़ुतूत-ए-जिस्म से मिलती कोई तस्वीर हो पैदा

लहू में घुल गए जो गुल दोबारा खिल भी सकते हैं
जो मैं चाहूँ तो सीने पर निशान-ए-तीर हो पैदा