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मसूरी की शाम / जया पाठक श्रीनिवासन

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विरह की है उदासी या
कि है यह प्रीत की कविता
जिसे इन पर्वतों की
चोटियों ने गुनगुनाया है
गगन का स्पर्श पा
धरती अचानक जी उठी सी है
की यह सूरज को जाता देख
नभ ने दुःख जताया है
सृजन की भोर है यह या
थकी सी शाम कहते हो
धरा की धडकनों में
पत्थरों के गीत सुनते हो?

मुझे लगता यहीं मिल जायेगा
आराध्य धरती को
जिसे बरसों से खोजा कर
रही थी वह समर्पित हो
प्रणय की वृष्टि के
सपने सजाये थरथराती वो
बनेगी वत्सला श्यामल पड़ी
बरसों से परती जो
चमकते बादलों को धुन
सुनहली सांझ रंगते हो
प्रणय की शाम में
इन पत्थरों के गीत सुनते हो?

(जून २००७, मसूरी)