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मस्खरे तलवार लेकर आ गए / महेश अश्क
Kavita Kosh से
मस्खरे तलवार लेकर आ गए
हम हँसे ही थे कि धोखा खा गए।
आस्मां आँखों को कुछ छोटा पड़ा
सारे मौसम मुट्ठियों में आ गए।
हादसे होते नहीं अब शहर में
यह खबर हमने सुनी, घबरा गए।
तुमको भी लगता हो शायद अब यही
सच वही था, जिससे तुम कतरा गए।
कुठ घरौंदे-सा उगा फिर रेत पर
और हम बच्चों-सा जिद पर आ गए।
रह गई खुलने से यकसर खामोशी
शब्द तो कुछ अर्थ अपना पा गए।
जिंदगी कुछ कम नहीं, ज्यादा नहीं
बस यही अंदाज हमको भा गए।
सच को सच की तर्ह जीने की थी धुन
हम सिला अपने किए का पा गए।
अब कहाँ ले जाएगी ऐ जिंदगी
घर से हम बाजार तक तो आ गए ।