भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मस्त मलंग अकेला / आनंद कुमार द्विवेदी
Kavita Kosh से
जिस अकेलेपन को
जीवन भर कोसता रहा
दुख मनाता रहा जिसका
वही अब सुख है
अमृत है,
नहीं होता जब कहीं कोई
पसरता है मीलों सन्नाटा
छूट जाती है दुनिया पीछे
छूट जाता है सारा कारोबार
सपने, आशाएँ
उदासियाँ निराशाएँ … भय
सब के सब
तब
अचानक आकर तुम्हारा अहसास
लिपट जाता है रूह से मेरी
मैं जीता हूँ तुमको …पा लेता हूँ खुद को,
निपट तन्हाई में तुम और मैं
आख़िर यही तो थी मेरी कल्पना
युगों से
जन्मों से,
एक सोच
एक जीवन
और एक दुनिया,
जादूगर!
तुम चाहो तो क्या नहीं बदल सकते !!