महँगाई और होरी / जगदीश सहाय खरे 'जलज'
रामधई, खायँ लेत महँगाई!
उतै लगत अब एक रुपइया जितै लगत ती पाई।
काँकी होरी, काँ कौ होरा?
कलजुग, परौ सबई्र पै तोरा,
चिथरा भई तुमाई धुतियाँ,
हम तौ कहत लपेड़ौ बोरा,
चुटियाँ फीता छोड़कें रँग लो,
करिया रामबाँस कौ जोरा,
दार उधार मुहल्ला भरकी, अब नों नई चुकाई।
काँसें लै आबै तिरकाई?
घर में जुरत नाज ना खाबे,
कैसें जायँ बहू खौं ल्वाबे?
छोड़ौ बे सतजुग की बातें,
दिन में दस-दस बीरा चाबे,
गुर-सक्कर की सुर्त करौ ना,
सकौ सतुआ नइयाँ खाबे,
भरभूँजिन खौं संकराँत की नई दै पाए भुँजाई।
उरानों रोज देत भौजाई।
पटकौ जा अपनी पिचकारी,
होय कछु तौ दै दो ब्यारी,
पइसन बिना खलीता सूनों,
काँसें ल्याएँ चून सरकारी,
दद्दा डरे स्वाँस के मारें,
कक्को खौं आ रई तिजारी
को दएँ देत उधार गरीब खौं, काँसें ल्याँय दबाई?
रो रइँ भर होरी खौं बाई।
हाय फसल पै पालो पर गओ,
हम सब खौं कौरन खौं कर गओ,
धरे हते जो चार रुपइया,
उनें साँड़ महँगाई कौ चर गओ,
जा कंगाली के बचई में,
होरी कौ त्यौहार पबर गओ,
हम कीसे पूँछें, जा मेंनत, सब काँ जात हमाई।
देत बस बापू की दोहाई।