भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महँगाई के मार / कस्तूरी झा ‘कोकिल’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महँगाई के मार भयंकर कोय नैं छै रोकबैइया
सुरसा नाँकी रोज बढ़ै छै नै हनुमान छोटबैइया।

करूवा तेल सूँघना दुर्लभ
कहाँ से पड़तै लोहिया?
चावल दाल अजनाश लगै छै
गुमसुम चुल्हा कोहिया।

सब्जी आसमान में लटकै कचुओ बीस रूपैइया।
महँगाई के मार भयंकर कोय नैं छै रोकबैइया
सुरसा नाँकी रोज बढ़ै छै नै हनुमान छोटबैइया।

मिर्च मसाला नाँव नैं बोलऽ
सीधे दू सौ टकिया।
तेल फुलेल सपना में आबै
बुझलऽ गरीबकेऽ डिबिया।

मनमोहन सरकार निकम्मी ‘बुश’ के झाल बजबैइया।
महँगाई के मार भयंकर कोय नैं छै रोकबैइया
सुरसा नाँकी रोज बढ़ै छै नै हनुमान छोटबैइया।

अजी सेठ केऽ पौ बारह छै
मालामाल व्यापारी।
नेता बैठलऽ पंच महल में।
दोनो पाँव पसारी।

ठहरऽ सबक सिखैबै अबरी, कोय नै छै बचबैइया।
महँगाई के मार भयंकर कोय नैं छै रोकबैइया
सुरसा नाँकी रोज बढ़ै छै नै हनुमान छोटबैइया।

-अंगिक लोक/ अक्तूबर-दिसम्बर, 2012